केदारनाथ मंदिर: जहाँ शब्द कम पड़ जाते हैं
केदारनाथ मंदिर: जहाँ शब्द कम पड़ जाते हैं
कुछ जगहें ऐसी होती हैं जहाँ पहुँचकर बोलने का मन नहीं करता। बस चुपचाप बैठकर महसूस करने का मन करता है। केदारनाथ उन्हीं जगहों में से एक है।
आस्था जो रास्ते में परखी जाती है
केदारनाथ की यात्रा आसान नहीं है। लंबा पैदल रास्ता, ठंडी हवा, कभी तेज़ धूप तो कभी अचानक बारिश। कई बार मन कहता है—बस अब और नहीं। लेकिन हर कदम के साथ भीतर कुछ बदलता है।
रास्ते में थके हुए चेहरों पर भी “बाबा केदार” का नाम आते ही एक अजीब सी ताकत आ जाती है। यहाँ आस्था किताबों से नहीं, अनुभव से समझ आती है।
पत्थरों में बसा शिव
यह मंदिर बड़े-बड़े पत्थरों से बना है—ना ज़्यादा सजावट, ना भव्यता का दिखावा। फिर भी, इसके सामने खड़े होकर लगता है जैसे भगवान शिव स्वयं यहीं विराजमान हों।
हज़ारों साल, बर्फ़, बारिश, आपदाएँ—सब कुछ देखा है इस मंदिर ने, फिर भी आज भी वैसा ही खड़ा है। अडिग। शांत। स्थिर।
2013 के बाद का केदारनाथ
2013 की त्रासदी ने सबको झकझोर दिया था। लेकिन केदारनाथ टूट नहीं पाया। शायद इसलिए, क्योंकि यह सिर्फ़ पत्थरों की इमारत नहीं है— यह करोड़ों लोगों की श्रद्धा है।
कुछ बदलकर लौटता है इंसान
केदारनाथ से कोई वैसा लौटता ही नहीं जैसा गया था। कोई अपने डर छोड़ आता है, कोई अहंकार, तो कोई अधूरे सवाल।
और बदले में साथ लाता है— शांति। एक ऐसा सुकून, जिसे शब्दों में समझाना मुश्किल है।
केदारनाथ देखा नहीं जाता, महसूस किया जाता है।
हर हर महादेव।
जय बाबा केदारनाथ।

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